गुरु अर्जुन देव जी की शहीदी सिख इतिहास की एक ऐसी घटना है जिसे याद कर हर सिख, हर भारतवासी का सिर गर्व से ऊंचा हो जाता है। आज के इस विशेष लेख में हम जानेंगे साहिब श्री गुरु अर्जुन देव जी की शहादत का इतिहास..
गद्दी पर बैठने से पूर्व ही बादशाह जहांगीर गुरुघर को घृणा की दृष्टि से देखता था क्योंकि गुरुघर में हिन्दू, मुसलमान सभी के लिए समदृष्टि थी। साई मियां मीर जी के कर कमलों द्वारा स्वर्ण मंदिर साहिब की नींव रखवाना पंचम पातशाह की उदारता का जीवंत प्रमाण है। जहांगीर को यह भी पता था कि गुरुदेव ने सभी धर्मों के अवतारों, भक्तों एवं महापुरुषों की वाणी गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित कर इसे मानव मात्र के कल्याण का धार्मिक ग्रंथ सिद्ध कर दिया।
जहांगीर को सिंहासन पर बैठे अभी कुछ ही सप्ताह हुए थे कि उसकी नीतियों के खिलाफ उसके बड़े शहजादा खुसरो ने बगावत कर दी। जहांगीर ने राज द्रोही घोषित कर उसे गिरफ्तार करने का हुक्म दिया। ऐसी परिस्थिति में जब खुसरो गुरु अर्जुन देव जी के दरबार में आया तो गुरुघर की परम्परानुसार उसके निवास तथा लंगर का समुचित प्रबंध किया गया। गुरुदेव ने उसके माथे पर तिलक लगा कर उसके लोकतांत्रिक विचारों की प्रशंसा भी की। बाद में खुसरो पकड़ा भी गया लेकिन पंचम पातशाह के विरुद्ध कार्रवाई करने का जहांगीर को अवसर मिल गया। राज दोषी घोषित कर जहांगीर ने पंचम गुरु को गिरफ्तार करवा कर दरबार में बुलवाया और प्रश्न किए, "खुसरो को अपने पास क्यों ठहराया? लंगर क्यों खिलाया? तिलक लगा कर शुभकामनाएं क्यों दीं ?"
गुरुदेव को तीन लाख रुपए जुर्माना किया गया। गुरु जी ने फरमाया कि यह सब गुरुघर की परम्परानुसार ही किया गया है अतः जुर्माना देने का प्रश्न ही नहीं। अब जहांगीर ने गुरुजी को शहीद करवाने का संकल्प कर उन्हें दीवान चन्द्र लाल के हवाले कर दिया। गुरुजी ने चन्दूलाल की बेटी का रिश्ता अस्वीकार कर दिया था। चन्द्र ने भीषण गर्मी में सच्चे पातशाह को अपनी हवेली के पिछवाड़े लाकर एक कोठरी में बंद करवा कर सख्त पहरा लगवा दिया। गुरुजी को भूखा-प्यासा रख हुकम सुनाया गया, "इस्लाम कबूल करो, नहीं तो ऐसी मौत मरोगे कि संसार में आज तक कोई मरा नहीं होगा।"
परन्तु परमात्मा के ध्यान में मग्न गुरुदेव ने चन्द्र के किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। फलतः चन्दू ने उन्हें ज्येष्ठ मास की दोपहर में गर्म रेत पर बैठने को कहा। प्रभु के स्मरण में लीन गुरुजी रेत पर चौकड़ी मार कर बैठ गए। तत्पश्चात उन्हें पानी की उबलती 'देग' में बिठा दिया गया जिससे उनके शरीर की चमड़ी छिल गई। इतना ही नहीं, पंचम गुरु को गर्म तवी पर बिठा कर 'उनके शरीर पर गर्म-गर्म रेत के कड़छे डलवाए गए परन्तु गुरु जी अपने धर्म मार्ग से तनिक भी विचलित न हुए-
"तेरा कीआ मीठा लागे, हरिनाम पदारथ नानक मांगे।" गुरुजी ने किसी को बददुआ नहीं दी, किसी से कोई शिकायत नहीं की। अत्याचार का यह भयावह दृश्य देख कर चन्दू की पुत्रवधू की आंखों में भी आंसू आ गए। साईं मियां मीर भी व्याकुल हो उठे पर गुरु जी सभी को शांत कर रहे थे।
अंततः मुर्तजा खां के आदेशानुसार गुरुदेव को 30 मई 1606 ई. में रावी नदी में डुबो दिया गया। कई इतिहासकारों के अनुसार गुरुजी ने स्वयं रावी नदी में स्नान करने की इच्छा व्यक्त की थी। निरन्तर पांच दिन असहनीय दुख सहन करते हुए गुरुजी की आत्मा पंच तत्वों में विलीन हो गई-
"सूरज किरन मिली, जल का जल हुआ राम।
जोती जोत रली, सम्पूरन थीआ राम ।।"
वस्तुतः जो शहादत गुरु अर्जुन देव जी ने अर्जित की है, वह अद्वितीय है और सिख इतिहास में ही नहीं अपितु विश्व इतिहास में स्वर्णिम वर्णों में लिखी हुई है। डा. योगेन्द्र सिंह इस संदर्भ में लिखते हैं, "गुरु अर्जुन देव जी का समस्त जीवन 'गर्म तवी' था। 'गर्म तवी' प्रतीक है- दुख, क्लेश और संकट का। गुरु अर्जुन देव जी को कदम-कदम पर दुख, क्लेश और संकट ने आकर घेरा किन्तु उन्होंने सभी दुख, क्लेश तथा संकट को 'तेरे भाणे अमृत वरसै' समझ कर भरपूर 'चढ्दी कला और निडरता से सहन किया।"
धन्य हैं गुरु अर्जुन देव जी, धन्य है उनकी एकत्रित पूंजी। गुरुदेव संकटों की भयानक कगार पर सदैव अडिग भाव से खड़े हो 'प्रभु मेरा रखवाला' कह कर प्रभु भक्ति में लीन रहे।