सोरठि महला ५ ॥ (Maya Moh Magan Andhiyare ) माया-मोह के अन्धेरे में मग्न होकर मनुष्य सब कुछ देने वाले दाता को नहीं जानता। वह उसे नहीं जानता, जिसने प्राण एवं शरीर की सृजना करके उसकी रचना की है और जो शक्ति उसके भीतर है, वह उसे ही अपना मानता है॥ १॥
हे विमूढ़ मन! स्वामी-प्रभु तेरे कर्मों को देख रहा है। जो कुछ तू करता है, वह सब जानता है और कुछ भी उससे छिपा नहीं रह सकता ॥ रहाउ॥ जिव्हा के स्वाद एवं लालच के नशे में मदमस्त व्यक्ति के अन्दर अनेक पाप-विकार ही उत्पन्न होते हैं। अहंत्प के बन्धनों के बोझ के निचे अनेक योनियों में भटकता हुआ वह बहुत दुःख भोगता है॥ २॥
द्वार बन्द करके एवं अनेक पदों के भीतर मनुष्य पराई नारी के साथ भोग-विलास करता है। लेकिन जब चित्रगुप्त तुझसे कर्मों का लेखा मांगेगा तो तेरे कुकर्मों पर कौन पर्दा डालेगा ?॥ ३॥
हे दीनदयालु! सर्वव्यापी! दुःखनाशक! तेरे अलावा मेरा कोई सहारा नहीं है। हे प्रभु ! नानक ने तेरी ही शरण ली है, इसीलिए उसे संसार-सागर में से बाहर निकाल लो॥ ४॥ १५ ॥ २६ ॥