Shabad Hazare in Hindi
Explore the profound spiritual journey through the 'Shabad Hazare Path in Hindi,' meticulously crafted with accurate pronunciation for devout Hindi followers.
Shabad Hazare holds a distinctive place among the sacred verses recited from Nitnem Gutka. Comprising seven verses that traverse human emotions and divine reverence from Sri Guru Granth Sahib Ji.
The Shabad Hazare derives its name from "Shabad," meaning divine hymn, and "Hazare," a term whose origins trace back to Arabic and Persian. In this context, "Hizar" or "Hazir" holds a dual connotation - "Hizar" conveys the poignant sentiment of "Viyoga," a sense of separation, while "Hazir" embodies the essence of "presence," signifying a state of being in the divine presence.
Comprising writings from both Guru Nanak Dev Ji and Guru Arjan Dev Ji, it opens with Guru Arjan Dev Ji's poignant letter, "Mera Man Loche Gur Darshan Tai." This verse expresses the sorrow of separation from Guru Ramdas Ji, Guru Arjan Dev Ji's father.
The subsequent six verses, composed by Guru Nanak Dev Ji, extol the limitless glory of the Almighty. Set to five distinct Ragas—Majh, Dhanasari, Tilang, Suhi, and Bilawal—the Shabad Hazare captures diverse emotions through melody.
Sr. No. | Shabad Title | Sggs Page | Raga | Composer |
---|---|---|---|---|
1 | Mera Man Loche Gur Darshan Tai | Ang 96 | Raag Majh | Guru Arjan Dev Ji |
2 | Jio Darat Hai Apna Kai Sio Kri Pukar | Ang 660 | Raag Dhanasari | Guru Nanak Dev Ji |
3 | Ehu Tan Maya Pahiya | Ang 721 | Raag Tilang | Guru Nanak Dev Ji |
4 | Iyanadiye Manana Kahe Kare | Ang 722 | Raag Tilang | Guru Nanak Dev Ji |
5 | Kaun Taraaji Kavan Tula | Ang 730 | Raag Suhi | Guru Nanak Dev Ji |
6 | Tu Sultan Kaha Hau Miyan | Ang 795 | Raag Bilawal | Guru Nanak Dev Ji |
7 | Man Mandar Tan Ves Kalandar | Ang 795 | Raag Bilawal | Guru Nanak Dev Ji |
Shabad Hazare Path in Hindi
माझ महला पंजवां चौपदे घर पहला ॥ मेरा मन लोचै गुर दरसन ताई ॥ बिलप करे चात्रिक की निआई ॥ त्रिखा न उतरै सांत न आवै बिन दरसन संत प्यारे जीओ ॥१॥ हौ घोली जीओ घोल घुमाई गुर दरसन संत प्यारे जीओ ॥१॥ रहाओ ॥ तेरा मुख सुहावा जीओ सहज धुन बाणी ॥ चिर होआ देखे सारिंगपाणी ॥ धंन सु देस जहा तूं वसिआ मेरे सज्जण मीत मुरारे जीओ ॥२॥ हौ घोली हौ घोल घुमाई गुर सज्जण मीत मुरारे जीओ ॥१॥ रहाओ ॥ इक घड़ी न मिलते ता कलिजुग होता ॥ हुण कद मिलीऐ प्रिय तुध भगवंता ॥ मोहि रैण न विहावै नीद न आवै बिन देखे गुर दरबारे जीओ ॥३॥ हौ घोली जीओ घोल घुमाई तिस सच्चे गुर दरबारे जीओ ॥१॥ रहाओ ॥ भाग होआ गुर संत मिलाया ॥ प्रभ अबिनासी घर महि पाया ॥ सेव करी पल चसा न विछुड़ा जन नानक दास तुमारे जीओ ॥४॥ हौ घोली जीओ घोल घुमाई जन नानक दास तुमारे जीओ ॥ रहाओ ॥१॥८॥
धनासरी महला पहला घर पहला चौपदे ੴ सत नाम करता पुरख निरभौ निरवैर अकाल मूरत अजूनी सैभं गुरप्रसाद ॥ जीओ डरत है आपणा कै स्यो करी पुकार ॥ दूख विसारण सेविआ सदा सदा दातार ॥१॥ साहिब मेरा नीत नवा सदा सदा दातार ॥१॥ रहाओ ॥ अनदिन साहिब सेवीऐ अंत छडाए सोए ॥ सुण सुण मेरी कामणी पार उतारा होए ॥२॥ दयाल तेरै नाम तरा ॥ सद कुरबाणै जाओं ॥१॥ रहाओ ॥ सरबं साचा एक है दूजा नाही कोए ॥ ता की सेवा सो करे जा कौ नदर करे ॥३॥ तुध बाझ प्यारे केव रहा ॥ सा वडिआई देहि जित नाम तेरे लाग रहां ॥ दूजा नाही कोय जिस आगै प्यारे जाए कहाँ ॥१॥ रहाओ ॥ सेवी साहिब आपणा अवर न जाचंउ कोय ॥ नानक ता का दास है बिंद बिंद चुख चुख होय ॥४॥ साहिब तेरे नाम विटहु बिंद बिंद चुख चुख होय ॥१॥ रहाओ ॥४॥१॥
तिलंग महला पहला घर तीजा ੴ सतिगुर प्रसाद ॥ इहु तन माया पाहिआ प्यारे लीतड़ा लब रंगाए ॥ मेरै कंत न भावै चोलड़ा प्यारे क्यो धन सेजै जाए ॥१॥ हंउ कुरबानै जाउ मिहरवाना हंउ कुरबानै जाउ ॥ हंउ कुरबानै जाउ तिना कै लैन जो तेरा नाउ ॥ लैन जो तेरा नाउ तिना कै हंउ सद कुरबानै जाउ ॥१॥ रहाओ ॥ काया रंगण जे थीऐ प्यारे पाईऐ नाउ मजीठ ॥ रंगण वाला जे रंगै साहिब ऐसा रंग न डीठ ॥२॥ जिन के चोले रतड़े प्यारे कंत तिना कै पास ॥ धूड़ तिना की जे मिलै जी कहु नानक की अरदास ॥३॥ आपे साजे आपे रंगे आपे नदर करेइ ॥ नानक कामण कंतै भावै आपे ही रावेइ ॥४॥१॥३॥
तिलंग महला पहला ॥ इआनड़ीए मानड़ा काय करेहि ॥ आपनड़ै घर हरि रंगो की न माणेहि ॥ सहु नेड़ै धन कमलीए बाहर क्या ढूढेहि ॥ भै कीआ देहि सलाईआ नैणी भाव का कर सीगारो ॥ ता सोहागण जाणीऐ लागी जा सहु धरे प्यारो ॥१॥ इआणी बाली क्या करे जा धन कंत न भावै ॥ करण पलाह करे बहुतेरे सा धन महल न पावै ॥ विण करमा किछ पाईऐ नाही जे बहुतेरा धावै ॥ लब लोभ अहंकार की माती माया माहि समाणी ॥ इनी बाती सहु पाईऐ नाही भई कामण इआणी ॥२॥ जाय पुछहु सोहागणी वाहै किनी बाती सहु पाईऐ ॥ जो किछ करे सो भला कर मानीऐ हिकमत हुकम चुकाईऐ ॥ जा कै प्रेम पदारथ पाईऐ तौ चरणी चित लाईऐ ॥ सहु कहै सो कीजै तन मनो दीजै ऐसा परमल लाईऐ ॥ एव कहहि सोहागणी भैणे इनी बाती सहु पाईऐ ॥३॥ आप गवाईऐ ता सहु पाईऐ और कैसी चतुराई ॥ सहु नदर कर देखै सो दिन लेखै कामण नौ निध पाई ॥ आपणे कंत प्यारी सा सोहागण नानक सा सभराई ॥ ऐसै रंग राती सहज की माती अहिनिस भाए समाणी ॥ सुंदर साए सरूप बिचखण कहीऐ सा सयाणी ॥४॥२॥४॥
सूही महला पहला ॥ कौण तराजी कवण तुला तेरा कवण सराफ बुलावा ॥ कौण गुरू कै पहि दीख्या लेवा कै पहि मुल्ल करावा ॥१॥ मेरे लाल जीओ तेरा अंत न जाणा ॥ तूं जल थल महीअल भरिपुर लीणा तूं आपे सरब समाणा ॥१॥ रहाओ ॥ मन ताराजी चित तुला तेरी सेव सराफ कमावा ॥ घट ही भीतर सो सहु तोली इन बिध चित रहावा ॥२॥ आपे कंडा तोल तराजी आपे तोलणहारा ॥ आपे देखै आपे बूझै आपे है वणजारा ॥३॥ अंधुला नीच जात परदेसी खिन आवै तिल जावै ॥ ता की संगत नानक रहदा क्यों कर मूड़ा पावै ॥४॥२॥९॥
ੴ सतनाम करता पुरख निरभउ निरवैर अकाल मूरत अजूनी सैभं गुरप्रसाद ॥ राग बिलावल महला पहला चौपदे घर पहला ॥ तू सुलतान कहा हौ मीआ तेरी कवन वडाई ॥ जो तू देहि सु कहा सुआमी मै मूरख कहण न जाई ॥१॥ तेरे गुण गावा देहि बुझाई ॥ जैसे सच महि रहौ रजाई ॥१॥ रहाओ ॥ जो किछ होआ सभ किछ तुझ ते तेरी सभ असनाई ॥ तेरा अंत न जाणा मेरे साहिब मै अंधुले क्या चतुराई ॥२॥ क्या हौ कथी कथे कथ देखा मै अकथ न कथना जाई ॥ जो तुध भावै सोई आखा तिल तेरी वडिआई ॥३॥ एते कूकर हौ बेगाना भौका इस तन ताई ॥ भगत हीण नानक जे होएगा ता खसमै नाउ न जाई ॥४॥१॥
बिलावल महला पहला ॥ मन मंदर तन वेस कलंदर घट ही तीरथि न्हावा ॥ एक सबद मेरै प्रान बसत है बाहुड़ जनम न आवा ॥१॥ मन बेधिआ दयाल सेती मेरी माई ॥ कौण जाणै पीर पराई ॥ हम नाही चिंत पराई ॥१॥ रहाओ ॥ अगम अगोचर अलख अपारा चिंता करहु हमारी ॥ जल थल महीअल भरिपुर लीणा घट घट जोत तुम्हारी ॥२॥ सिख मत सभ बुध तुम्हारी मंदिर छावा तेरे ॥ तुझ बिन अवर न जाणा मेरे साहिबा गुण गावा नित तेरे ॥३॥ जीअ जंत सभ सरण तुम्हारी सरब चिंत तुध पासे ॥ जो तुध भावै सोई चंगा इक नानक की अरदासे ॥४॥२॥
Translation in Hindi
मेरा मन लोचै गुर दरसन ताई
माझ महला ५ चउपदे घरु १ ॥ मेरे मन को गुरु के दर्शनों की तीव्र अभिलाषा हो रही है। यह चातक की भाँति विलाप करता है। हे सन्तजनों के प्रिय ! आपके दर्शनों के बिना मेरी प्यास नहीं बुझती और न ही मुझे शांति प्राप्त होती है।॥१॥ हे संत जनों के प्रिय ! गुरु के दर्शनों पर मैं तन, मन से न्योछावर हूँ और सदैव ही कुर्बान जाता हूँ॥१॥ रहाउ॥ हे मेरे गुरु ! तेरा मुख अति सुन्दर है और तेरी वाणी की ध्वनि मन को आनंद प्रदान करती है। हे सारंगपाणि ! तेरे दर्शन किए मुझे चिरकाल हो चुका है। हे मेरे सज्जन एवं मित्र प्रभु ! वह धरती धन्य है जहाँ तुम वास करते हो॥२॥ हे मेरे सज्जन एवं मित्र प्रभु रूप गुरु जी ! मैं आप पर तन-मन से न्यौछावर हूँ और आप पर कुर्बान जाता हूँ॥ १॥ रहाउ ॥ यदि मैं तुझे एक क्षण भर नहीं मिलता तो मेरे लिए कलियुग उदय हो जाता है। हे मेरे प्रिय भगवान ! मैं तुझे अब कब मिलूंगा? आपका दरबार देखे बिना न ही मुझे नींद आती है, न ही मेरी रात्रि बीतती है। मैं पूज्य गुरु के सच्चे दरबार पर तन-मन से कुर्बान जाता हूँ॥१॥ रहाउ॥ मेरे भाग्य उदय हो गए हैं और संत-गुरु से मिल पाया हूँ। मैंने अनश्वर प्रभु को अपने हृदय-घर में ही प्राप्त कर लिया है। हे नानक ! मैं प्रभु के सेवकों की सेवा करता रहता हूँ और मैं उनसे एक पल अथवा क्षण मात्र भी जुदा नहीं होता। हे नानक ! मैं प्रभु के सेवकों पर तन एवं मन से कुर्बान जाता हूँ॥ रहाउ॥१॥८॥
जीओ डरत है आपणा कै स्यो करी पुकार
धनासरी महला १ घरु १ चउपदे औंकार वही एक है, उसका नाम सत्य है, वह सृष्टि एवं जीवो की रचना करने वाला है, वह सर्वशक्तिमान है, उसे किसी प्रकार का कोई भय नहीं है, वह निर्वेर, अकालमूर्ति कोई योनि धारण नहीं करता, वह स्वयंभू है, जिसे गुरु की कृपा से ही पाया जाता है। मेरी आत्मा डर रही है, मैं किसके पास पुकार करूं ? इसलिए मैंने तो सब दुःख भुलाने वाले परमात्मा की ही उपासना की है, जो सदैव ही जीवो को देने वाला है ॥ १ ॥ मेरा मालिक नित्य ही नविन है और वह हमेशा है सबको देने वाला है |॥ १ ॥ रहाउ॥ निशदिन उस मालिक की सेवा करते रहना चाहिए, क्योंकि अंत में वही यम से मुक्त करवाता है। हे मेरी प्राण रूपी कामिनी ! प्रभु का नाम सुनकर तेरा भवसागर से कल्याण हो जाएगा ॥२ ॥ हे दयालु परमात्मा ! तेरे नाम द्वारा मैं संसार-सागर से पार हो जाऊँगा। मैं तुझ पर सदैव ही कुर्बान जाता हूँ।॥ १ ॥ रहाउ॥ सबका मालिक एक सत्यस्वरूप ईश्वर ही सर्वव्यापी है, अन्य दूसरा कोई सत्य नहीं है। उसकी सेवा वही करता है, जिस पर वह अपनी करुणा-दृष्टि करता है॥३। हे मेरे प्यारे ! तेरे बिना मैं कैसे रह सकता हूँ? मुझे वही बड़ाई प्रदान करो, जिससे मैं तेरे नाम-सिमरन में लगा रहूँ। हे मेरे प्यारे! कोई अन्य दूसरा है ही नहीं, जिसके समक्ष मैं अनुरोध करूं।॥ १ ॥ रहाउ ॥ मैं तो अपने उस मालिक की ही सेवा करता रहता हूँ एवं किसी दूसरे से मैं कुछ नहीं माँगता। नानक तो उस मालिक का दास है और हर क्षण उस पर टुकड़े-टुकड़े होकर कुर्बान जाता है।४। हे मेरे मालिक ! हर क्षण मैं तेरे नाम पर टुकड़े-टुकड़े होकर कुर्बान जाता हूँ।॥ १ ॥ रहाउ।४ ॥१॥
इहु तन माया पाहिआ प्यारे लीतड़ा लब रंगाए
तिलंग महला १ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हे मेरे प्यारे ! मेरा यह तन रूपी चोला माया की लाग से लग गया है और मैंने इसे लालच रूपी रंग में रंग लिया है। इसलिए मेरा यह तन रूपी चोला मेरे पति-प्रभु को अच्छा नहीं लगता, मैं उसकी सेज पर कैसे जाऊँ ?॥ १॥ हे मेहरबान मालिक ! मैं कुर्बान जाता हूँ। मैं सदैव ही उन पर कुर्बान जाता हूँ जो तेरा नाम लेते हैं। जो तेरा नाम हैं, उन पर मैं सदा कुर्बान हूँ॥ १॥ रहाउ॥ हे मेरे प्यारे ! यदि यह काया ललारी की भट्टी बन जाए और उसमें नाम रूपी मजीठ डाला जाए। यदि रंगने वाला मेरा मालिक स्वयं मेरे तन रूपी चोले को रंगे तो उसे ऐसा सुन्दर रंग चढ़ जाता है, जो पहले कभी देखा नहीं होता।॥ २॥ हे प्यारे ! जिन जीव-स्त्रियों के तन रूपी चोले नाम रूपी रंग में रंगे हुए हैं, उनका पति-प्रभु सर्वदा उनके साथ रहता है। नानक की प्रार्थना है कि मुझे उनकी चरण-धूलि मिल जाए॥ ३॥ प्रभु स्वयं ही जीव-स्त्रियों को पैदा करता है, स्वयं ही उन्हें नाम रूपी रंग में रगता है और स्वयं ही उन पर अपनी कृपा दृष्टि करता है। हे नानक ! जब जीव-स्त्री अपने पति-प्रभु को अच्छी लगने लगती है तो वह स्वयं ही उससे आनंद करता है॥ ४ ॥ १॥ ३ ॥
इआनड़ीए मानड़ा काय करेहि
तिलंग मः १ ॥ हे नादान जीव-स्त्री ! तू घमण्ड क्यों करती है ? तू अपने हृदय-घर में मौजूद हरि का प्रेम क्यों नहीं लेती ? हे बावली स्त्री ! तेरा पति-प्रभु तेरे पास ही है, तेरे हृदय में रहता है, तू उसे बाहर क्यों ढूंढती है ? अपने नयनों पर प्रभु के डर रूपी सुरमे की सिलाइयों डाल और प्रमु-प्रेम का श्रृंगार कर। यदि पति-प्रभु जीव-स्त्री से प्रेम धारण करेगा तो ही वह सुहागिन जानी जाएगी॥ १॥ नादान एवं नासमझ जीव-स्त्री क्या कर सकती है, यदि पतिप्रभु उसे पसंद ही न करे। ऐसी जीव-स्त्री कितने ही करुणा-प्रलाप करती है लेकिन पति-प्रभु की अनुकंपा के बिना उसका महल प्राप्त नहीं करती। यदि वह अधिकतर भागदौड़ भी करे तो भी भाग्य के बिना उसे कुछ भी प्राप्त नहीं होता। लालच,लोभ एवं अहंकार में मग्न हुई वह माया में ही समाई रहती है। जीव-स्त्री नासमझ ही बनी हुई है और उसे इन बातों से मालिक-प्रभु प्राप्त नहीं होता।॥ २॥ चाहे सुहागिन स्त्रियों से जाकर पूछ लो कि उन्होंने किन बातों से अपने पति-प्रभु को पाया है। जो कुछ प्रभु करता है, उसे भला समझ कर स्वीकार करो और अपनी चालाकी व हुक्म चलाना छोड़ दी। उस प्रभु के चरणों में चित्त लगाना चाहिए, जिसके प्रेम से मोक्ष पदार्थ मिलता है। जो प्रभु कहता है, वही कार्य करो। ऐसी सुगन्धि लगाओ कि अपना तन एवं मन अर्पण कर दो । हे बहन ! सुहागिन स्त्री इस तरह ही कहती है कि इन बातों से ही पति प्रभु मिलता है। ३॥ यदि अहंत्व को दूर कर दिया जाए तो ही पति प्रभु मिलता है, इसके अलावा कोई अन्य चतुराई व्यर्थ है। जब पति-प्रभु अपनी कृपा-दृष्टि करके देखता है तो जीव-स्त्री का वह दिन ही सफल है और वह नौ निधियों पा लेती है। हे नानक ! जो जीव-स्त्री अपने पति-प्रभु को प्यारी लगती है, वही सुहागिन है और वह सबमें शोभा प्राप्त करती है। जो प्रभु प्रेम में रंगी हुई है और सहजावस्था में रात दिन प्रभु-प्रेम में लीन रहती है, वही सुन्दर, रूपवान, विलक्षण स्वरूप वाली एवं चतुर कहलाती है॥ ४॥ २॥ ४॥
कौण तराजी कवण तुला तेरा कवण सराफ बुलावा
सूही महला १ ॥ हे ईश्वर ! वह कौन-सा तराजू है, कौन-सा तुला है, जिसमें मैं तेरे गुणों का भार तोलूं ? तेरी महिमा की परख करने के लिए मैं किस सर्राफ को बुलाऊँ ? कौन-से गुरु के पास दीक्षा लूं, और किससे मैं मूल्यांकन कराऊँ ? ॥ १॥ हे मेरे प्यारे प्रभु ! मैं तेरा रहस्य नहीं जानता। तू जल, पृथ्वी एवं आकाश में भरपूर है और तू स्वयं ही सबमें समाया हुआ है।॥ १॥ रहाउ॥ हे परमात्मा ! मेरा मन ही तराजू है और मेरा चित ही तुला है। मैं तेरी उपासना करूँ, यही सर्राफ है। अपने मालिक को मैं अपने हृदय में ही तोलता हूँ तथा इस विधि द्वारा मैं अपना चित उसमें लगाकर रखता हूँ ॥ २॥ परमात्मा स्वयं ही कांटा, स्वयं ही तौल, स्वयं ही तराजू है और वह स्वयं ही तोलने वाला है। वह स्वयं ही देखता है, स्वयं ही समझता है और स्वयं ही व्यापारी है॥ ३॥ मेरा यह मन अन्धा है, नीच जाति का एवं परदेशी है। यह एक क्षण में ही कहाँ से लौटकर आ जाता है और तिल मात्र समय के उपरांत फिर कहीं जाता है अर्थात् हर वक्त भटकता ही रहता है। हे ईश्वर ! नानक इस मन की संगति में रहता है, इसलिए वह मूर्ख तुझे कैसे पाए॥ ४॥ २॥ ६॥
तू सुलतान कहा हौ मीआ तेरी कवन वडाई
रागु बिलावलु महला १ चउपदे घरु १ ॥ हे परमात्मा ! तू समूची सृष्टि का सुलतान है, अगर मैं तुझे मियाँ कहकर संबोधित कर दूँ, तो भला कौन-सी बड़ी बात है, क्योंकि तेरी महिमा का कोई अन्त नहीं। हे स्वामी ! जो सूझ तू झे देता है, मैं वही कहता हूँ, अन्यथा मुझ मूर्ख से कुछ भी कहा नहीं जाता ॥ १॥ मुझे ऐसी सूझ दीजिए ताकि मैं तेरा गुणगान करूँ तथा जैसे तेरी रज़ा में मैं सत्य में ही लीन रहूँ॥ १॥ रहाउ॥ दुनिया में जो कुछ भी हुआ है, वह तेरे हुक्म से ही हुआ।यह सब तेरा ही बड़प्पन है। हे मेरे मालिक ! मैं तेरा अंत नहीं जानता, फिर मुझ ज्ञानहीन की चतुराई क्या कर सकती है॥ २॥ हे ईश्वर ! मैं तेरे गुण क्या कथन करूं ? मैं तेरे गुण कथन करके देखता हूँ लेकिन तू अकथनीय है और मुझ से तेरा कथन नहीं किया जाता। जो तुझे भाता है, वही कहता हूँ और मैं एक तिल ही तेरी प्रशंसा करता हूँ॥ ३॥ कितने ही कूकर (कुत्ते ) हैं, पर मैं ही एक बेगाना कूकर (कुत्ता) हूँ, जो अपने पेट के लिए भौंकता रहता हूँ। यदि नानक भक्तिविहीन भी हो जाएगा तो भी उसके मालिक नाम नहीं जाएगा अर्थात् नाम साथ ही चलता रहेगा ॥ ४ ॥ १ ॥
मन मंदर तन वेस कलंदर घट ही तीरथि न्हावा
बिलावलु महला १ ॥ हे भाई ! मेरा मन मन्दिर है और यह तन कलंदर (फकीर) का वेष है तथा यह हृदय रूपी तीर्थ में स्नान करता रहता है। मेरे प्राणों में एक शब्द 'ब्रह्म' ही बसता है अतः मैं पुनर्जन्म में नहीं आऊँगा॥ १॥ हे मेरी माँ ! मेरा मन दया के घर परमात्मा से विंघ गया है, इसलिए पराई पीडा को कौन जानता है। हमें अब किसी की चिंता नहीं है॥ १॥ रहाउ॥ हे अगम्य, अगोचर, अलक्ष्य एवं अपरंपार मालिक ! हमारी चिंता करो। तू समुद्र, पृथ्वी एवं आकाश में भरपूर होकर सबमें बसा हुआ है और प्रत्येक शरीर में तुम्हारी ही ज्योति विद्यमान है॥ २॥ हे भगवान् ! मुझे सीख, अक्ल एवं बुद्धि यह सब तेरी ही दी हुई है और मन्दिर एवं छायादार वाटिका भी तेरे ही दिए हुए हैं। हे मेरे मालिक ! मैं तेरे अलावा किसी को भी नहीं जानता और नेित्य तेरे ही गुण गाता रहता हूँ॥ ३॥ सभी जीव-जन्तु तेरी शरण में हैं और तुझे उन सबकी चिंता है। नानक की एक प्रार्थना है कि हे ईश्वर ! जो तुझे भला लगता है, वही मेरे लिए उचित है॥ ४॥ २॥
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